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आज रहने दो यह गृह-काज / सुमित्रानंदन पंत

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आज रहने दो यह गृह-काज,
प्राण! रहने दो यह गृह-काज!
आज जाने कैसी वातास
छोड़ती सौरभ-श्लथ उच्छ्वास,
प्रिये लालस-सालस वातास,
जगा रोओं में सौ अभिलाष।
आज उर के स्तर-स्तर में, प्राण!
सजग सौ-सौ स्मृतियाँ सुकुमार,
दृगों में मधुर स्वप्न-संसार,
मर्म में मदिर-स्पृहा का भार!
शिथिल, स्वप्निल पंखड़ियाँ खोल
आज अपलक कलिकाएँ बाल,
गूँजता भूला भौंरा डोल
सुमुखि! उर के सुख से वाचाल!
आज चंचल-चंचल मन-प्राण,
आज रे शिथिल-शिथिल तन भार;
आज दो प्राणों का दिन-मान,
आज संसार नहीं संसार!
अजा क्या प्रिये, सुहाती लाज?
आज रहने दो सब गृह-काज!

रचनाकाल: फ़रवरी’ १९३२