भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दो पदचिन्ह तेरे / विजय वाते

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:05, 11 जून 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अगर अपने होने का धोखा रहेगा,
तभी तो इबादत का मौका रहेगा ।

दो पदचिन्ह मेरे दो पदचिन्ह तेरे,
जमा-खर्च इतना-सा होता रहेगा ।

मुझे होश खोकर भी ये होश होगा,
कुल अपने दिल का झरोखा रहेगा ।

बदलता बदलता बदलता लगेगा,
बदलता मगर सिर्फ खोखा रहेगा ।