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यही बची है / ओम पुरोहित ‘कागद’
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सूख-सूख गए हैं
ताल-तलायी
कुँड-बावड़ी
ढोरों तक को नहीं
गँदला भर पानी ।
रेत के समन्दर में
आँख भर पर ज़िन्दा है भँवरिया ।
यही बची है
जो कभी बरसती है
भीतर के बादलों से
टसकता खारा पानी ।