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आईना रोज़ संवरता कब है / कविता किरण

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आईना रोज़ संवरता कब है
अक्स पानी पे ठहरता कब है

हमसे कायम ये भरम है वरना
चाँद धरती पे उतरता कब है

न पड़े इश्क की नज़र जब तक
हुस्न का रंग निखरता कब है

हो न मर्ज़ी अगर हवाओं की
रेत पर नम उभरता कब है

लाख चाहे ऐ 'किरण' दिल फ़िर भी
दर्द वादे से मुकरता कब है