पैराडाइज़ लॉस्ट-3 / संजीव सूरी
पैराडाइज़ लास्ट (तीन)
पंछियों की नन्हीं चोंचों से
झरते गीत सुनकर
शफ़क सिन्दूरी साँझ देखकर
लहलहाते खेत, झूमते दरख़्त देखकर
एडम को लगने लगा है
ज़मीन तो करिश्मा है
मुलायम ज़िन्दगी जीने के लिए
बह रही है अनवरत
ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी
ख़ुशबूदार, सतरंगी बगियारूपी पृथ्वी पर
पोखर में नहाती ईच सोचती है
‘फ़ोर्बिडन फ़्रूट’ जो एक बयान था
बारूदी ज़ालिम कालिख का
वह लीक की तरह खिंच गया है
पैराडाइज़ और ज़मीन के मध्य
उनके जो शब्द फुसफुसाते थे पैराडाइज़ में
लग गए हैं पंख उन्हें ज़मीन पर
कर्बनाक हाशिए से बाहर आ गई है ज़िन्दगी
सारे का सारा ख़ालीपन
रिस गया है उनकी आत्मा से
बन गई है आत्मा एक महीन झालर
की तरह
मगर फिर भी क्यों कभी-कभी लगता है
एडम और ईव को कि उनकी
शिराओं में लहू नहीं आग बहती है
पिघलता लोहा बहता है आँखों से
दिमाग में रेतीले विचार विचरण करते हैं
ज़िन्दगी के माथे से पोंछते हुए पसीना
वे कभी कभी टटोलने लगते हैं
अपने अस्तित्व के झोलों से?
सुनो एडम ! सुनो ईव!
भटकन इस सिंथेटिक सभ्यता की
फ़ितरत है
पर तुम दोनों को हर सूरत में बचना है
शैतान और उसके शैतान दोस्ती
बीएल्ज़ेबब से.