भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ये बाजार सारा कहीं थम न जाये / गौतम राजरिशी

Kavita Kosh से
वीनस केशरी (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:54, 13 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गौतम राजरिशी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> ये बाजार सारा क…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये बाजार सारा कहीं थम न जाये
न गुजरा करो चौक से सर झुकाये

कोई बंदगी है कि दीवानगी ये
मैं बुत बन के देखूँ, वो जब मुस्कुराये

समंदर जो मचले किनारे की खातिर
लहर-दर-लहर क्यों उसे आजमाये

सितारों ने की दर्ज है ये शिकायत
कि कंगन तेरा, नींद उनकी उड़ाये

मचे खलबली, एक तूफान उट्ठे
झटक के जरा जुल्फ़ जब तू हटाये

हवा जब शरारत करे बादलों से
तो बारिश की बंसी ये मौसम सुनाये

हवा छेड़ जाये जो तेरा दुपट्टा
जमाने की साँसों में साँसें न आये

हैं मगरूर वो गर, तो हम हैं मिजाजी
भला ऐसे में कौन किसको मनाये

उफनता हो ज्वालामुखी जैसे कोई
तेरा हुस्न जब धूप में तमतमाये