भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सुबह / विजय वाते
Kavita Kosh से
वीनस केशरी (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:17, 13 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKRachna |रचनाकार=विजय वाते |संग्रह= ग़ज़ल / विजय वाते }} {{KKCatGhazal}} <poem> आँख मलत…)
आँख मलते हुए जागती है सुबह
और फिर रात दिन भागती है सुबह
सूर्य के ताप को जेब में डाल कर
सात घोंडों का रथ हांकती है सुबह
रात सोई नहीं नींद आई नहीं
सारे सपनों का सच जानती है सुबह
बाघ की बतकही जुगनुओं की चमक
मर्म इतना कहाँ आकती है सुबह
आहटें शाम के रात की दस्तकें
गुड़मुड़ी दोपहर लांघती है सुबह