साँस क्यों रुकने लगी है / माधव मधुकर
आ गया है वक़्त अब ये देखने का
आस की हर साँस क्यों रुकने लगी है ?
बैठकर कुछ देर अपने साथ सोचें
पीर क्यों हर आँख में दिखने लगी है ?
ज़िन्दगी के सीप के मोती कहाँ हैं ?
आस के मस्तूल क्यों टुटे हुए हैं
हिरनियों की आँख क्यों छलकी हुई है
तितलियों के रंग क्यों छूटे हुए हैं ?
टूट कर गिरने लगे हैं फूल-पत्ते
विषबुझी कैसी हवा चलने लगी है ?
हम चले थे एक नई दुनिया बसाने
था कहाँ जाना कहाँ पर आ गए हैं
नाव है मझधार में पतवार ग़ायब
और चारों ओर बादल छा गए हैं
नाविकों ने इस क़दर धोखा दिया है
हर लहर अब भँवर-सी लगने लगी है ।
हर तरफ़ है आज जंगल-राज क़ायम
हर बली निर्बल को खता जा रहा है
सिर्फ़ रुपया हो गया सर्वस्व अब तो
इससे अब सब-कुछ ख़रीदा जा रहा है
तन तो पहले भी बिका करते थे लेकिन
आत्मा भी अब यहाँ बिकने लगी है ।