भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मोती हार पिरोये हुए / परवीन शाकिर
Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:17, 13 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परवीन शाकिर |संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन …)
मोती हार पिरोये हुए
दिन गुजरे हैं रोये हुए
नींद मुसाफिर को ही नहीं
रस्ते भी हैं सोये हुए
जश्न ए बहार में आ पहुंचे
ज़ख्म का चेहरा धोये हुए
उसको पाकर रहते हैं
अपने आप में खोये हुए
कितनी बरसातें गुजरीं
उससे मिलकर रोये हुए