भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दस्तरस से अपनी बाहर हो गए / परवीन शाकिर
Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:09, 14 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=परवीन शाकिर |संग्रह=खुली आँखों में सपना / परवीन …)
दस्तरस से अपनी बाहर हो गए
जब से हम उनको मयस्सर हो गए
हम जो कहलाये तुलुअ ए माहताब
डूबते सूरज का मंज़र हो गए
शहर ए खूबाँ का यही दस्तूर है
मुड़ के देखा और पत्थर हो गए
बेवतन कहलाये अपने देस में
अपने घर में रह के बेघर हो गए
तेरी खुदगर्ज़ी से खुद को सोचकर
आज हम तेरे बराबर हो गए