धन्याष्टकं / मृदुल कीर्ति
ओइम
धन्याष्टकं
आदि गुरु शंकराचार्य विरचित
ज्ञान वही जिन देत जनाई, इन्द्रिन सकल चपलता जाई.
जाननि जोग उपनिषद सारा, सगरो ज्ञान अनंत पसारा.
धन्य धरनि पर वे जन महती, परमारथ हित जिन चित रहती,
अन्य निःशेष करत निज जनमा, मोह जगत मोहित मन भरमा.-------------------------------१
राग द्वेष रिपु कर निर्मूला, विषय वासना हीन समूला.
ज्ञान ग्रहण उद्यम जिन प्रेया , योगारूढ़ अवस्था श्रेया.
आत्म ज्ञान संग सदा सुहाती, संग भार्या जस दिन राती,
धन्य-धन्य जिन वन गृह गेह़ा, विरत ,न नेकु निकेतन नेहा.---------------------------------२
नेह, निकेतन को जिन त्यागी, आत्म ज्ञान अमृत अनुरागी,
उपनिषदीय सार आसक्ता, पद, विषयन सों रहत विरक्ता.
वीतराग, वैरागी चित्ता, जनम समर्पित ब्रह्म निमित्ता
धन्य भाग उनके बहुताई, अस असंग, संग संगति पाई.-------------------------------------३
मैं, मेरा, ममकार अहंता, जीवन बंधन, जनम अनंता,
मान और अपमान समाना, सम दृष्टा, सबको सम माना.
कर्ता,, , कर्म करत कोऊ अन्या, अस विचार जिनके मन धन्या.
धन्य-धन्य निष्कामी प्रानी, करम विपाक, करत वे ज्ञानी.---------------------------४
पुत्र, वित्त लोकेष्णा त्यागी, वे ही मोक्ष मार्ग अनुरागी.
बस भिक्षान्न, अमिय जिन तृप्ता, देह निर्वहन हेतु न लिप्ता.
परे परात्पर ब्रह्म प्रकासा, अंतस धरे ब्रह्म की आसा,
धन्य-धन्य अस द्विज जन सोई, धन्य-धन्य शुभ जनम संजोई.--------------------५
ना अणु ना ही महत अनंता, ना सत, असत, विरल ही सत्ता.
ना नारी ना पुरुष नपुंसक, एक मूल करण जग सर्जक.
मन एकाग्र ब्रह्म जिन साधा, वे भव सिन्धु तरें बिनु बाधा.
धन्य-धन्य जिन ब्रह्म उपासा, अन्य-अन्य बंधित भव पाशा.-----------------------६
तिन पर कृपा नियंता कीन्हा, जिन अज्ञान सहज तजि दीन्हा.
जनम, मृत्यु, दुःख, ज़रा अवस्था, जिन जानाति अथ प्रकृति व्यवस्था.
ज्ञान रूप अरि काटहिं बन्धा, जीवन दर्शन, मुक्ति प्रबंधा.
धन्य-धन्य जिनके चित जागा, अस विराग, वे ही बढ भागा.------------------------७
शांत, सुमति, शुभ, मधुर सुभावा, विरत, जिन्हें दृढ़ निश्चय भावा.
आत्म तत्त्व वेत्ता वनवासी, कण-कण ब्रह्म तत्त्व विश्वासी.
परम ब्रह्म परि पूरन सत्ता, आदि-अंत परब्रह्म इयत्ता.
धन्य- धन्य, जीवन प्रभुताई, ब्रह्म तत्त्व जिन चित्त समाई.---------------------------८
इति धन्याष्टकं