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यासिर अरफ़ात के लिए / परवीन शाकिर

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आसमान का वह हिस्सा
जिसे हम अपने घर की खिड़की से देखते हैं
कितना दिलकश होता है
ज़िन्दगी पर यह खिड़की भर तसर्रुफ़<ref>रद्द-ओ-बदल या परिवर्तन</ref>
अपने अन्दर कैसी विलायत<ref>विदेशीपन</ref> रखता है
इसका अंदाज़ा
तुझसे बढ़कर किसे होगा
जिसके सर पे सारी ज़िन्दगी छत नहीं पड़ी
जिसने बारिश सदा अपने हाथों पे रोकी
और धूप में कभी दीवार उधार नहीं माँगी
और बर्फ़ों में
बस इक अलाव रौशन रखा
अपने दिल का

और कैसा दिल
जिसने एक बार किसी से मुहब्बत की
और फिर किसी और जानिब भूले से नहीं देखा
मिट्टी से एक अह्द<ref>वादा</ref> किया
और आतिश-ओ-आब-ओ-बाद<ref>आग, पानी और हवा</ref> का चेहरा भूल गया
एक अकेले ख़्वाब की ख़ातिर
सारी उम्र की नींदें गिरवी रख दी हैं
धरती से इक वादा किया
और हस्ती भूल गया
अर्ज़-ए-वतन<ref>देश का नक़्शा</ref> की खोज में ऐसे निकला
दिल की बस्ती भूल गया
और उस भूल पे
सारे ख़ज़ानों जैसे हाफ़िजे<ref>स्मृतियाँ</ref> वारे
ऐसी बेघरी, इस बेचादरी के आगे
सारे जग की मिल्कियत भी थोड़ी है
आसमान की नीलाहट भी मैली है


शब्दार्थ
<references/>