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ज़ख्म यूँ मुस्करा के खिलते हैं / बशीर बद्र

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ज़ख़्म यूँ मुस्कुरा के खिलते हैं
जैसे वो दिल को छू के गुज़रे हैं

दर्द का चाँद, आँसुओं के नुजूम
दिल के आँगन में आज उतरे हैं

राख के ढेर जैसे सर्द मकाँ
चाँद इन बदलियों में रहते हैं

आईनों का कोई कुसूर नहीं
इन में अपने ही अक़्स होते हैं

ग़ौर से देख ख़ाक तन्हा नहीं
साथ फूलों के रंग उड़ते हैं

कोई बीमार के क़रीब रहो
शाम ही से चराग़ सोये हैं

अलअमा शाइराने ख़स्ता हाल
कितने आशिक़ मिज़ाज होते हैं

अब शबे-हिज़्र भी नहीं आती
इन दिनों हम बहुत अकेले हैं

इन से अहवाले शब सुनो साहब
’बद्र’ जी रात रात घूमे हैं

(१९६०)