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आईना ही नहीं / विजय वाते
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द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:58, 19 जून 2010 का अवतरण
उसको धोखा कभी हुआ ही नहीं|
उसकी दुनिया में आईना ही नहीं|
उसकी आँखो में ये धनक कैसी,
उसका रंगों से वास्ता ही नहीं|
उसने दुनिया को खेल क्यों समझा,
घर से बाहर तो वो गया ही नहीं|
सबकी खुश्फहमियाँ बढाता है,
आईना सच तो बोलता ही नहीं|
आसमानों का दर्द क्या जानें,
उसके तारा कभी चुभा ही नहीं|
तुम उसे शेर मत सुनाओ 'विजय'
शब्द के पार जो गया ही नहीं|