भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम तो थे रूठे ही / जीवन शुक्ल

Kavita Kosh से
डा० जगदीश व्योम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:48, 25 जून 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


तुम तो रूठे थे
चित्र और रूठ गया

जहा सहा संयम से
नाता था टूट गया

उर्मिल हो उठी पीर
रोकेगा कौन मरुद
तिरते से पातों को

छाला यह अंतस का
असमय ही फूट गया

मेरा मन मानी है
तसरा अभिमानी है

कमलों की नालों को
रितु का शिशु कूट गया ।