Last modified on 28 जून 2010, at 16:27

पतंग पर कविता / मनोज श्रीवास्तव

Dr. Manoj Srivastav (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:27, 28 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= मनोज श्रीवास्तव |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> '''पतंग पर कव…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

पतंग पर कविता

मत लिखो, कविता पतंग पर
कविता उड़ने लगेगी,
कविता में रहते लोग
अचानक घटित आश्चर्य से
डर-सहम जाएंगे

मत बनाओ, कविता को
इतनी शोख और आज़ाद
कि वह उड़कर इतनी दूर चली जाए
हो सकता है
हमें भूल ही जाए
और हम अपना मुंह देखते रह जाएं
उन दर्पणों में
जो हमें बदसूरत बना देते हैं
हमें खुद से बहुत दूर ले जाते हैं

हम अपने से लगते हैं
जब देखते हैं
अपना प्रतिबिम्ब कविता में,
हम अपनों के पास आते हैं
जब देखते हैं
उनका अक्स कविता में

सो, मत लादो पतंग पर
कविता का दुर्वह बोझ,
इसमें समाया आदमी
अपने लफड़ों-झमेलों के साथ
और उसके समाजों के जंगल
जो विस्तारित हैं
पृथ्वी के कोने-कोने,
बेघर और निराश्रित हो जाएगा

इसलिए, कविता का भारी जिस्म
तोड़ देगा पतंगों की कमर,
तब, कविता गिरकर ज़ख़्मी हो सकती है
और उसमें समाया संसार
चकनाचूर हो सकता है.

(रचना-काल: अप्रेल, २००३)