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युद्धःबच्चे और माँ / कविता वाचक्नवी

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युद्ध : बच्चे और माँ


निर्मल जल के
बर्फ हुए आतंकी मुख पर
कुंठाओं की भूरी भूसी
लिपटा कर, जो
गर्म रक्त मटिया देते हैं
वे, मेरे आने वाले कल के कलरव पर
घात लगाए बैठे हैं सब।


वर्तमान की वह पगडंडी
जो इस देहरी तक आती थी
धुर लाशों से अटी पडी़ है,
ओसारे में
मृत देहों पर घात लगाए
हिंसक कुत्तों की भी भारी
भीड़ लगी है।

मैं पृथ्वी का
आनेवाला कल सम्हालती
डटी हुई हूँ
नहीं गिरूँगी...
नहीं गिरूँगी....
पर इस अँधियारे में
ठोकर से बचने की भागदौड़ में
चौबारे पर जाकर
बच्चों को लाना है,
इन थोथे औ’ तुच्छ अहंकारी सर्पों के
फन की विषबाधा का भी
भय
तैर रहा है....।

कोई रोटी के कुछ टुकडे़
छितरा समझे
श्वासों को उसने
प्राणों का दान दिया है
और वहीं दूजा बैठा है
घात लगाए
महिलाओं, बच्चों की देहों को बटोरने
बेच सकेगा शायद जिन्हें
किसी सरहद पर
और खरीदेगा
बदले में
हत्याओं की खुली छूट, वह।


एक ओर विधवाएँ
कौरवदल की होंगी
एक ओर द्रौपदी
पुत्रहीना
सुलोचना
मंदोदरी रहेंगी........।



किंतु आज तो
कृष्ण नहीं हैं
नहीं वाल्मीकि तापस हैं,
मै वसुंधरा के भविष्य को
गर्भ लिए
बस, काँप रही हूँ
यहीं छिपी हूँ
विस्फोटों की भीषण थर्राहट से विचलित,
भीत, जर्जरित देह उठाए।



त्रासद, व्याकुल बालपने की
उत्कंठा औ’ नेह-लालसा
कुंठा बनकर
हिटलर या लादेन जनेगी
और रचेगी
ऐसी कोई खोह
कि जिसमें
हथियारों के युद्धक साथी को लेकर
छिप
जाने कितना रक्त पिएगी।



असुरक्षित बचपन
मत दो
मेरे बच्चों को,
उन्हें फूल भाते हैं
लेने दो
खिलने दो
रहने दो मिट्टी को उज्ज्वल
पाने दो सुगंध प्राणों को।

जाओ, कृष्ण कहीं से लाओ
यहाँ उत्तरा तड़प रही है!!
वाल्मीकि!
सीता के गर्भ
भविष्य पल रहा!!