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दुर्दिन / कर्णसिंह चौहान
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पीछा नहीं छोड़ा यहां भी
दुर्दिन ने
छेक ही लिया मार्ग ।
कितनी मुश्किल से निकल पाया
ध्वस्त खंडहरों के अंबार से
अगतिक स्मृतियों की मार से
जहां आदमी ढोता
असह्य भार ।
यहां हर दिन
निकलते सूरज की लाली थी
बर्फ की ताजगी में नहाकर
निकला नया देश
गोबर लिपा cccccccccccचौका
नई कोंपलों में फूटता जीवन का
परिवर्तन
कितना साफ ।
अभी जब बच्चे
नींद में
सपनों का संसार रच रहे थे
हवा में तैरते
बादल के पंखों पर
परियों के देश का
शोध कर रहे थे
बवंडर ने
सब कुछ मिटा दिया ।
अब यहां भी दब गई है सांस
मलबे में
जीवन पर
बढ़ रहा
स्मृतियों का भार
अतीत में चलने लगा हूं मैं
कितना अच्छा था पिछला साल
उससे भी अच्छा पहला साल ।