Last modified on 30 जून 2010, at 20:56

अपना गाँव-समाज / अवनीश सिंह चौहान

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:56, 30 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> बड़े चाव से …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बड़े चाव से बतियाता था
अपना गाँव-समाज
छोड़ दिया है चौपालों ने
मिलना-जुलना आज

बीन-बान लाता था लकड़ी
अपना दाऊ बागों से
धर अलाव पर आँच दिखाता
सबै बुलाता रागों से

सब आते निज गाथा गाते
इक दूजे पर नाज़

नैहर से जब आते मामा
सब दौड़े-दौड़े आते
फूले नहीं समाते मिलकर
घण्टों-घण्टों बतियाते

भेंटें होतीं, हँसना होता
खुलते थे कुछ राज

जब जाता था घर से कोई
पग पीछे-पीछे चलते
गाँव किनारे तक सब आते
थे अपनी आँखे मलते

डूब गया है किस पोखर में
गाँवों का वह साज