भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नदिया की लहरें / अवनीश सिंह चौहान

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:58, 30 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अवनीश सिंह चौहान |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <Poem> देखो, आईं नद…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देखो, आईं नदिया की लहरें
अपना घर-वर छोड़ के
डोलें बस्ती-बस्ती, जंगल-जंगल
रिश्ते-बंधन तोड़ के

मीठी बातें उदगम की
उदगम पर ही छूट गईं
भावों की लड़ियाँ कैसे
राहों में ही टूट गईं?

कितनी निर्मोही, यों बनी बटोही
अपनों से मुँह मोड़ के!

सीखा तपना पत्थर पर
काँटों पर चलते रहना
कि प्यास बुझाना प्यासे की
सीखा खुद जलते रहना

है चाहा कब प्रतिदान लहर ने
दरकी धरती जोड़ के?

मीलों लम्बा सफ़र पड़ा
साँसें कुछ ही शेष बचीं
अब भी उत्साह बना है
सच है थोड़ी कमर लची

कभी मुहाने पहुंचेंगी लहरें
सारी परतें तोड़ के