भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ऐसा बने सुयोग / अवनीश सिंह चौहान
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:08, 30 जून 2010 का अवतरण
छार-छार हो दुख का पर्वत
ऐसा बने सुयोग
गलाकाट इस प्रतिस्पर्धा में
कठिन हुआ जीवित रह पाना
यदि जीवित बचे रहे भी तो
मुश्किल है इसमें टिक पाना
सफल हुए हैं जो इस युग में
ऊँचा उनका योग
बड़ी-बड़ी ‘गाला’ महफ़िल में
हों कितनी भोगों की बातें
और कहीं टपरे के नीचे
हैं मन मारे सिकुड़ी आँतें
कोई हाथ चिरौरी करता
कोई करे नियोग
भइया मेरे, पता चले तो
बतलइयो वह कला अनूठी
आस-पास अपनी धरती पर
मिल जाए करिअर की बूटी
तुम्हरे लिए दुआ करेंगे
हम जैसे सब लोग