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नदिया की लहरें / अवनीश सिंह चौहान
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देखो, आईं नदिया की लहरें
अपना घर-वर छोड़ के
डोलें बस्ती-बस्ती, जंगल-जंगल
रिश्ते-बंधन तोड़ के
मीठी बातें उदगम की
उदगम पर ही छूट गईं
भावों की लड़ियाँ कैसे
राहों में ही टूट गईं?
कितनी निर्मोही, यों बनी बटोही
अपनों से मुँह मोड़ के!
सीखा तपना पत्थर पर
काँटों पर चलते रहना
कि प्यास बुझाना प्यासे की
सीखा खुद जलते रहना
है चाहा कब प्रतिदान लहर ने
दरकी धरती जोड़ के?
मीलों लम्बा सफ़र पड़ा
साँसें कुछ ही शेष बचीं
अब भी उत्साह बना है
सच है थोड़ी कमर लची
कभी मुहाने पहुंचेंगी लहरें
सारी परतें तोड़ के