भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हां वही सुख / सांवर दइया

Kavita Kosh से
Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:04, 1 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: <poem>छिप नहीं सकता वह सुख तृप्ति बन तिर-तिर चेहरे पर घिर-घिर आता हैं …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

छिप नहीं सकता वह सुख
तृप्ति बन तिर-तिर
चेहरे पर घिर-घिर
आता हैं फिर-फिर
लुनाई लुटाता
अंगों में आलोक भरता
देह में देवत्व जगाता
 
वही
हां, वही सुख
जो हरा करता ।