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सच का संधान / कर्णसिंह चौहान

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इस सच का सामना करके
अचानक अधेड़ हो गए हैं
मैं और मेरी पत्नी
केवल किस्सा नहीं था
पल में बालों का रंग बदल जाना
निमिष में
कली का फूल बन कर झड़ जाना

समुद्र की दहलीज लाँघते ही
व्यस्क हो गये बच्चे
कोरी कल्पना नहीं है
किसी का भविष्य में चले जाना
वर्तमान को दफ़्ना
इतर लोकों में खो जाना
शायद ही लौटकर आए
वह भोलापन
विश्वासों का हरा भरा आंगन
सीधी सरल रेखा में
विकसती बौद्धिकता
चिड़िया की आंख सा
सच का संधान

द्रुज्बा

हमारी तुम्हारी दोस्ती के नाम
द्रुज्बा के इस घर पर
मेज की दराज में
छोड़े जा रहा हूँ ये डायरी
इसमें दर्ज़ हैं
सोफिया के आखिरी साल।

यह शहर जब
बन गया हो पैरिस
और तुम्हें
सोफिया की याद सताए
तब तुम यहाँ आना
पन्नों की धूल छुड़ाना
इनमें मिलेगा
तुम्हारे घर का नक्शा
ऐशिया की लिपि में खिंचा हुआ।

द्रुज्बा : सोफिया की एक नई बस्ती