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दोपहर के अलसाये पल / लावण्या शाह

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रचनाकार: लावण्या शाह

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तुम्हारी समंदर -सी गहरी आँखोँ में,
फेंकता पतवार मैं, उनींदी दोपहरी मेँ -
उन जलते क्षणोँ में, मेरा ऐकाकीपन
और घना होकर, जल उठता है - डूबते माँझी की तरह -
लाल दहकती निशानियाँ, तुम्हारी खोई आँखोँ में,
जैसे दीप-स्तंभ के समीप, मंडराता जल !

मेरे दूर के सजन, तुम ने अँधेरा ही रखा
तुम्हारे हावभावों में उभरा यातनों का किनारा -
अलसाई दोपहरी में, मैं, फिर उदास जाल फेंकता हूँ -
उस दरिया में, जो तुम्हारे नैया से नयनोँ में कैद है !

रात के पँछी, पहले उगे तारों को, चोंच मारते हैँ -
और वे, मेरी आत्मा की ही तरहा, और दहक उठते हैँ !
रात, अपनी परछाईं की ग़्होडी पर रसवार दौडती है,
अपनी नीली फुनगी के रेशम - सी लकीरों को छोडती हुई !

208.102.209.199* 208.102.209.199 * 208.102.209.199 * 208.102.209.199 * 208.102.209.199 २०:२३, १ दिसम्बर २००७ (UTC) * 208.102.209.199 २०:२३, १ दिसम्बर २००७ (UTC) * 208.102.209.199 * 208.102.209.199 दिल हुआ आशनाँ .. Dil huaa Aashnaa ( a poem by : lavanya ) २०:२३, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:२३, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:२३, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:२३, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:२३, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:२३, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:२३, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:२३, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:२३, १ दिसम्बर २००७ (UTC)२०:२३, १ दिसम्बर २००७ (UTC)~~

बुझते चिरागोँ से उठता धुँआ ( bujhte charagon se uthta dhuan कह गया .. अफसाने, रात के ( kah gaya afsane raat ke ) कि इन गलियोँ मेँ कोई .. ( ki, een galiyon mei, koyee आ कर,... चला गया था .. ( aa kar , chala gaya tha ) . रात भी रुकने लगी थी, ( raat bhee rukne lagee thee ) सुन के मेरी दास्ताँ ( sun ke meri dasttan ) चाँद भी थमने लगा था ( chand bhee thamne lagee tha ) देख कर दिल का धुँआ ..( dekh ker dil ka dhuaan ) बात वीराने मे की थी, ( baat virane mei kee thee ) लजा कर दी थी सदा ( Laja ker dee thee sada ) आप भी आये नही थे, ( aap bhee aaye nahee the ) दिल हुआ था आशनाँ .. ( Dil huaa tha aashnaa ! )

रात की बातोँ का कोई गम नहीँ ( Raat ki baaton ka koyee gam nahee ) दिल तो है प्यासा, कहेँ क्या , ( Dil to hai pyaasa kahein kya ) आप से, ...अब .. .हम भी तो ( Aap se ...ab ...Hum bhee to ) हैँ हम नहीँ ! ( Hum naheen )

-- लावण्या