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धरती मां का दूध / दिनेश कुमार शुक्ल
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केवल लय ही नहीं
बहुत कुछ आने वाला है कविता में
कविता में ही नहीं थकी हारी दुनिया के चप्पे-चप्पे में
चट्टानें फोड़-फोड़ कर
कोदों, साँवाँ, तीसी जैसे भूले बिसरे
और उपेक्षित जीवन के
अगणित अंकुर जगने वाले हैं
रेगिस्तानी बालू में
ये लहरें जो सुगबुगा रही हैं
रेत की नहीं
खालिस पानी की लहरें हैं
फिर से दूध उतर आया है
धरती की बूढ़ी छाती में