कदंब की डाल / दिनेश कुमार शुक्ल
सखि, डाल कदम्ब की डोलती है
चहुं ओर सुधारस घोलती है । सखि
रेत-सी धूप है खेत चुपचाप हैं
मेंड़ पर ऊंघते पेड़ चुपचाप हैं
सूखते रूख की आत्मा में कहीं
जो तरलता बची है सो डोलती है
प्यार से जिन्दगी को टटोलती है
जो ये डाल कदम्ब की डोलती है । सखि.
अब न यमुना रही ना रहा वेणुवन
अब न मुरली की धुन ना कहीं श्यामघन
तप रही है मही तप रहा है गगन
और बरसों से सोया पड़ा है पवन
फिर भी जीवट तो इसका ज़रा देखिये
एक लौ-सी लगी है सो डोलती है । सखि.
वो नहर के किनारे जहां पेड़ थे
जिनकी माटी में जीवन का गुंजार था
खेलता जिनमें फस्लों का अंबार था
उसमें भट्ठे का ज्वालामुखी बो दिया
रात दिन अब धधकता धरा का हिया
चिमनी माहौल में जहर घोलती है
फिर भी डाल कदम्ब की डोलती है । सखि.
हमने सोचा था अबकी फसल जो कटी
जाके कंगन तुम्हारे छुड़ा लाऊंगा
और कपड़े नये सबको सिलवाऊंगा
मां को काशी प्रयाग करा लाऊंगा
और छप्पर नया घर पे डलवाऊंगा।
लेकिन बादल जो आये तो अफसर बने ।
जीप पर तन के आये औ' चलते बने
उनके बंगलों में फूहड़ चमन है खिला
आग में भुन रहा है कि सारा जिला
आप कीजेगा जाकर के किससे गिला
बेरुखी का बड़ा लम्बा है सिलसिला ।
बेरुखी के कुतंत्र को तोड़ती है
जो ये डाल कदम्ब की डोलती है । सखि.
आग का, ध्वंस का यह महाज्वार है
क्या अजब युद्ध है मूसलों मार है
धर्म अब एक महामार हथियार है
जाति की एक कुटिल धार तलवार है
भाई भाई को खाने को तैयार है
दायें बाजू का बायें पे ये वार है
ऐसा खुदकुश समां - वक्त दुश्वार है।
और महलों में बैठा गुनहगार है
जिसकी दुर्नीति का भेद खोलती है । सखि.
किन्तु इतिहास के दौर में जब कभी
सभ्यता शक्ति अपनी बटोरती है
सोती चेतना की झकझोरती है,
न्याय का सूर्य होता उदय है तभी,
मुक्ति मिलती है सारी कुरूपता से,
सूखती पतझरी शाख पर जब कभी
एक कोंपल सुनहरी-सी फूटती हैं। सखि.