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किस डर से / नवनीत पाण्डे

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किस डर से
      उठती नहीं आंखें
      हिलते नहीं होंठ
      धूजते हैं हाथ-पैर
      पहाड़ हो जाते हैं कंकड़
      समंदर चुल्लू
      आसमान गिर पड़ता है धरती पर
      बिना किसी आहट के
      और धरती हो जाती है स्वर्गीय
      किस डर से
      टूट रहे हैं दर्पण
      बिखर रहे हैं बिम्ब
      सड़ रहे हैं प्रतीक
      कुंदा रही है कलम
      षब्द मांग रहे हैं भीख
      किताबें हो रही हैं अंधी
      सर्जक खड़ा है कटोरा लिए दूकानों पर
      और सब चुप!!!
      किस डर से.........