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छूटे हुए संदर्भ / नवनीत पाण्डे
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जहां पहुंच कर
होंठ हो जाते हैं गूंगे
आंखें अंधी और कान बहरे
समझ,नासमझ
और मन
अनमना
पूरी हो जाती है हद
हर भाषा की
अभिव्यक्ति बेबस
बंध, निर्बंध
संवेदन की इति से अथ तक
कविता, कहानी, उपन्यास
लेखन की हर विधा से बाहर
जो नहीं बंधते किसी धर्म,संस्कार,
समाज, देश, काल, वातावरण जाल में
नहीं बोलते कभी
किसी मंच, सभा, भीड़, एकांत,
शांत-प्रशांत में
भरे पड़े हैं
जाने कहां-कहां इस जीवन में
इसी जीवन के
छूटे हुए संदर्भ
उडीक में
काली-कलूटी, टूटी-फूटी मुर्दा सड़क
जी उठती है अचानक
जब भी तुम गुजरती हो
हम दोनों घण्टों बतियाते हैं एक-दूजे से
तुम्हारे हर लौट जाने के बाद
तुम्हारे फिर लौट आने की उडीक में