भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
परदे हटा के देखो / अशोक चक्रधर
Kavita Kosh से
See ani (चर्चा) द्वारा परिवर्तित 13:47, 30 अप्रैल 2007 का अवतरण (New page: कवि: अशोक चक्रधर Category:कविताएँ Category:अशोक चक्रधर ~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~* ये घर है...)
कवि: अशोक चक्रधर
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*
ये घर है दर्द का घर, परदे हटा के देखो,
ग़म हैं हंसी के अंदर, परदे हटा के देखो।
लहरों के झाग ही तो, परदे बने हुए हैं,
गहरा बहुत समंदर, परदे हटा के देखो।
चिड़ियों का चहचहाना, पत्तों का सरसराना,
सुनने की चीज़ हैं पर, परदे हटा के देखो।
नभ में उषा की रंगत, सूरज का मुस्कुराना
ये ख़ुशगवार मंज़र, परदे हटा के देखो।
अपराध और सियासत का इस भरी सभा में,
होता हुआ स्वयंवर, परदे हटा के देखो।
इस ओर है धुआं सा, उस ओर है कुहासा,
किरणों की डोर बनकर, परदे हटा के देखो।
ऐ चक्रधर ये माना, हैं ख़ामियां सभी में,
कुछ तो मिलेगा बेहतर, परदे हटा के देखो।