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घृणा की घास / हरीश भादानी

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देखो!
अविश्वास का यह काला पहाड़,
जिसकी टेढ़ी-मेढ़ी फटी हुई रखों में
उगी हुई है घास घृणा की।
यह इतना ऊँचा
अतना कठोर कि
छिल जायेंगे तेरे नन्हें पांव,
और थक जायेगी
हर साँस नेह की।
इस कांटेदार घास में
उलझ-उलझ कर फट जायेगा
नभ-गंगा सी ममता का आँचल।
आ इस पहाड़ के,
एक ओर तू, एक ओर मैं,
आँसू की दारें
बनकर टकरायें;
यह सही, कि
यूं मिट जायेगा
एक मुइट जायेगा
एक नहीं, सौ सौ घड़ियों का जीवन;
मगर एक दिन
धरती का उर फट जायेगा
अविश्वास का यह काला पहाड़,
और कँटीली घास घृणा की डूब जायेगी!