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मेरी कविते / हरीश भादानी

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मेरी कविते! तू वैभव की इन्द्र सभा में
बिकने कहीं चली मत जाना!

यह दुनिया तो रंग विरंगे
वैभव का दरबार है,
सस्ते-मंहगे लेन-देन का
बहुत बड़ा बाजार है।
हीरे मोती सब दरबारी
सोना ही सरदार है,
कुटनी चाँदी के हाथों में
कीमत का अखबार है।
यश के लोभी डोम खड़े हैं भीड़ जमाने-
मोटे-मोटे ढोल बजा कर;
मेरी कविते! तू इस सतरंग जाले में -
आकर कहीं छली मत जाना।

माँग रहे हैं कितने गाहक
तनी गुलाबी डोर को,
सब खरीदने को आकुल हैं
सावन की मधु-लोर को
बाँध रहे हैं ये भावों में
इन्द्र धनुष के छोर को,
आँक रहे हैं लिये कसौटी
ये संध्या की कोर को।
तोल रहे हैं झलर मलर तारों की आभा-
ये अपनी मोती माला से ;
मेरी कविते! दुकानों में सजी वासना,
उनकी गली चली मत जाना

संभव है बिक जाना तेरे
इस नीले आकाश का,
संभव है बँध जाना तेरे
रागों के मधुमास का!
थैली में छुप जाये शायद
बदरा तेरी आस का,
सूखा ही रह जाये आँगन
तेरे उर की प्यास का।
ये सब व्यापारी हैं, सूदखोर, संगदिल हैं-
मेरी इस पीढ़ी के आदमी ;
मेरी कविते! ये तो मोहित भरी उमर पर
इनके कहे ठगी मत जाना।

शपथ तुम्हें है मेरी कविते!
गर बेचो अरमान को,
अपना सब कुछ खो देना
पर मत कोना ईमान को।
साधे रहो अन्त तक अपने
विश्वासों के बाणों को,
सौ सौ बार निछावर कर दो
सत पर अपने प्राण को।
मैं भी श्रम-सीकर में आशा घोल-घोल कर
नये भोर के गीत लिखूंगा;
मेरी कविते! तेरी तो ये ही राहें हैं-
दूजी डगर चली मत जाना।