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आदतों के सामने / गोबिन्द प्रसाद

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आदतें जब इच्छा शक्ति बन जाती हैं
तो शायद अपने आक़ा को भी नहीं बख़्शतीं
आदतों के सामने ईश्वर भी सलाम बजा लाता है
हालाँकि ईश्वर भी इनसान की पुरानी आदत है
आदतें बिन आवाज़ हमारे भीतर चिल्लाती हैं
वे हमारे भीतर अक्सर न सुनाई देने वाली चुप की दहाड़ होती हैं
कभी-कभी वे बेसिर-पैर की भी होती हैं
फिर भी जीवन में रंग भरतीं
लय-ताल से हुमकतीं उम्र के आख़िरी पड़ाव तक साथ देती हैं
हालाँकि आदतों की कोई तुक नहीं होती
लेकिन यह समझना भूल है कि आदतें बिल्कुल बेतुकी चीज़ हैं
जैसे सोचना
सोचना दुनिया की सबसे पुरानी आदत है

आदतों की कोई परछाईं नहीं होती, बिन आवाज़ वो
बहती-छलकती हैं
आदतें ज़िन्दगी का ज़रूरी बाब हैं
आदतें अच्छी हों या ख़राब
कभी-कभी जीवन में ऐसे आती हैं जैसे मिट्टी में प्राण
कभी-कभी ऐसे आती हैं जैसे सहरा में आब
दूर दरिया पार के पहाड़ों से जैसे रबाब
किसी बिछड़ी हुई धुन की तरह बुलाता है

चुपचाप अपने पानी में सोई हुई नदी का ख़ाब हैं आदतें