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डूबती सांझ की गोद में / गोबिन्द प्रसाद

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दूर से आती नावों ने भी
गिरा दिये हैं अपने पाल
मल्लाहों के गान में शिखर सूर्य-से तपते
तार-स्वरों की लय में वो लपक नहीं बाक़ी
पानी में डूबे चप्पुओं में त्वरा नहीं
लहरें भी हो चली हैं ध्यान-मग्न
जाती धूप के साथ डूब चले हैं अँधेरे की परते में
मछेरों के जाल
किनारों पर ठहरी अनमनी नावों के मस्तूल
और दूर-दराज़ जहाँ-तहाँ चमकते हुए
फुनगियों के फूल
पक्षियों के ध्यान में भी उतर
आयी है,घोंसलों में तैरती-डूबी रात

चमक रहे हैं दूर,बहुत दूर
मन्दिरों के धुँधले होते कलश और तिसूल
और... कहीं-कहीं पानी और रेत-लहरों की लकीर
दूर पार हवा भी चुपचाप ठहरी है

मैं भी खड़ा हूँ;ठगा-सा
डूबती साँझ की गोद में.लहरों में साक्षात्‍ घिरा
जा रहा हूँ आज, कल फिर आऊँगा?