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व्योम-धरा / गोबिन्द प्रसाद
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बाहर रोज़-ब-रोज़ बनता है
भीतर दिन-ब-दिन घटता है
मन से मन
आँखों से आँखें जुड़ती हैं
अक्षर से अक्षर मिलकर
मानो
सरित् सागर से
व्योम धरा से मिलता है
बाहर रोज़-ब-रोज़ बनता है
भीतर दिन-ब-दिन घटता है