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महाकाल का आईना / गोबिन्द प्रसाद

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महाकाल का आईना
मुझमें जाग रहा है :
       कितने दरिया और
        कितने आसमान
        कितने इतिहास और
        कितने वर्तमान
        कितने स्फुरण और कितने जागरण
        आँखों में हैं सत्ताओं के कितने रंग
            कितने कर्षण

मुझमें जाग रहा है
        भाषाओं का
        अगम समुद्र से परे
        ग्यान

मुझमें जाग रहा है
         सोया हुआ
         शब्द
         राग
         ध्यान