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पगडंडियाँ (कविता) / मनोज श्रीवास्तव
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पगडंडियाँ
वर्तमान के धधकते सीने पर
शीतल अतीत हैं पगडंडियां
जिन पर अंकित हैं
भूले-बिसरे पुरखों के
इबारती पद-चिह्न
जिन्हें अंगारी सड़कों ने
ढँक दिया है
अपने दानवी जिस्म के नीचे
और जकड़ लिया है
अपनी हत्यारी बांहों से
और हमारे झुलसे पाँव
जोह रहे हैं वही शीतलता
जो बमुश्किल मिल सकेंगे
किताबों के किन्हीं पौराणिक नगरों में
या, स्मृतिलोक के किन्हीं उपेक्षित गाँवों में
जहां पहुंचने को हमदम राहें नहीं हैं
दिक् सूचक कोई ध्रुवतारा भी नहीं है
पर, हमें विश्वास है कि
किसी दिन पगडंडियों की मुस्कराहट
सड़कों पर उतरा आएंगी
और बता देंगी उनका पता.