झिरमिर धूप झरी / हरीश भादानी
वे सब कहां उड़ीं
एक चिड़ी ने जंगल-जंगल
जा आ आकार
एक पेड़ पर लाये तिनके
रखे बिछा कर
रसमस माटी रसमस तन मन
रूप रचाये
सांसें पी-पी
चोंचें चहक पड़ीं
दाने चुग-चुग बांट निहोरे
सांझ सवेरे
फड़-फड़ फुद-फुद पाटी पढ़कर
पंख उकेरे
नीले-नीले आसमान से
रंग ली आंखें
झुरमुट हिलका
झिरमिर धूप झरी
गुन-गुन गूंजी शाख-शाख ज्यों
एक शहर हो
भरी उड़ानें बरसों जैसे
एक पहर हो
कोने बैठी हवा न जाने
तमक गई क्यों
काली-पीली
आंधी हुए झड़ी
सावन एक सिपाही जैसा
छत पर आकर
मटिया-मटिया राख फेंक दी
गुर गुर्राकर
बिजुरी कड़-कड़ पैने दांतों
पीस गई सब
गीतों जैसी
वो बस्ती उजड़ी
वे सब कहां उड़ीं