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तपाया करूं / हरीश भादानी

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ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं
पीठ दे ही गई जब
क्षितिज की दिशा
आवाज़ क्यों दूं उसे
                    उसी के लिए
फिर हरफ़ क्यों घड़ूं
ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं

सवालों के कपड़े पहन जब
सड़क ही खड़ी हो गई सामने
                                        उसी पर
चरण खोज के क्यों उठाऊं-धरूं
ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं

सीढ़ियों से उतर कर कुहरता ही हो जब
धरम सूर्य का
फिर उजालों में मिलते अंधेरों की
                    किससे शिकायत करूं
क्यों उसी धूप से आंख खोलूं भरूं
ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं

हाथ पर हाथ ही जब
सुलगता हुआ
एक चुप रख गए,
इसी आग से
और कितनी उमर
सिर्फ़ झुलसा करूं
                    किसी और शुरूआत की
एषणा ही तपाया करूं

ठहराव से क्यों बंधा ही रहूं