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एषणा पर / हरीश भादानी

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कैसे पैबंद लगाऊं

जिस कैनवास पर
अगले क्षण
तस्वीर उजलनी थी
                    वह कौन हवा थी
यहां-वहां से
गुमसुम लीक गई
फट गई एषणा पर
                    कैसे पैबंद लगाऊं

लिखनी थी जिनसे
अगले ही क्षण
अर्थवती पोथी
                    वे कौन जुबानें थीं
दरवाजे रख गई पत्थरों की भाशा
कागज के नर्म कलेजे पर
                    कैसे हरफ़ बिछाऊं

होनी थी जिनसे
अगले ही क्षण
क्षितिजों छूती धरती
                    कैसी थी दीवारें
पथ काट गई
मन के मन बांट गई
अजनबी हुई संज्ञाएं
                    कौन स्वरों आवाजूं

कैसे पैबंद लगाऊं