न जाने कितनी उमंगें लेकर
पहरों बतियाने की सोच
आया था मैं द्वार तिहारे
मिले, मुस्कुरायें, बैठे
पर बतियाये नहीं
जितने पल बीते
सब रीते
रीते-रीते वे पल
दे सके कोई हल ?
जब तक रहा
भीतर तक छिलता रहा
तुम्हारी चुप्पी के चाकू से !
न जाने कितनी उमंगें लेकर
पहरों बतियाने की सोच
आया था मैं द्वार तिहारे
मिले, मुस्कुरायें, बैठे
पर बतियाये नहीं
जितने पल बीते
सब रीते
रीते-रीते वे पल
दे सके कोई हल ?
जब तक रहा
भीतर तक छिलता रहा
तुम्हारी चुप्पी के चाकू से !