इतना कुछ होता है यहां / मनोज श्रीवास्तव
    इतना कुछ होता है यहां      
इतना कुछ होता है यहां 
 
जबकि कोई हुक्मरान 
डिनर कर रहा होता है
व्हाइट हाउस में 
तब, क्या होता है यहां?
 
न, न, कूड़ेदान में दुबका
यह आदम जीव 
क्या बता पाएगा
सूचना क्रान्ति का विगुल बजाते 
इस महान राष्ट्र का भविष्य?
अरे, तुम यमुना-किनारे 
मत पूछो--
कम से कम सौ सालों तक 
कि यह देश किस शिखर पर
उड़ बैठेगा
इस सदी के बाद के 
महापरिवर्तनकारी दौर में,
जबकि विदेशों में
अपने नामूनेदार जिस्म की नुमाइश लगातीं 
भारतीय विश्व सुंदरियां 
ऐलान करती जा रही हैं 
कि नून-तेल से 
बहुत ऊपर उठ चुका है यह देश,
यहां रोटियों से नहीं 
लोग पेट भरते हैं अघा-अघा
गली-गली मचलती सुन्दरता से 
 
और तंगहाली के दिन लड़ गए हैं,
यहां, कोई नहीं है 
भूखा, नंगा, बेघर
बदनसीब, बदहवास,
क्योंकि तिलस्मी विश्व्सुन्दरियों ने 
बना दिया है बेशक, हमें 
हृष्ट, पुष्ट, तुष्ट,
अब जिम्नेशियम जा रहे
बूटीक, ब्यूटीपार्लर में 
उम्र गुज़ार रहे 
युवक-युवतियां 
बनाएंगे इस कुरूप राष्ट्र को 
गन्धर्वदेश और अप्स रा लोक 
 
धत!
कितना है बकवास
परियोजनाओं का विलाप?
देखो--उनके वैभव-विलास
फाइलों में 
प्रचार पत्रिकाओं में 
जहां वे बेतहाशा गाते जा रहे हैं 
मुक्त-उन्मत्त धुन में
राष्ट्र का विकास-गीत
 
इस कम्प्यूटर रेस में 
बातें मत करो आवेश में--
आनन-स्पर्श के मोहताज़ होठों की 
क्योंकि नहीं रहा आर्यावर्त्त दीन-देहाती, 
कायांतरित होता जा रहा है यह
करिश्माई ख़्वाब-गाह में तत्त्वर
 
हां, अब तो कर लो यकीन 
कि दूरदर्शन के गर्म तवे पर 
सिंक-सिंक कर
हर दुधमुंहा बनकर रहेगा वीर्यवान,
उससे रिसते 
मूसलाधार रज से 
बच्च्चियाँ नहीं रह पाएंगी बच्चियां,
हां, मान लो, बेशक!
दीवारें भी होती जा रही हैं गर्भवती,
अब इस जादुई पिटारे में
पैदा होते हैं अथाह अनाज
बेघरों को मिलते हैं मकान
खुलते हैं कल-कारखाने,
रोजीरोटी की दूकान 
जिनसे कृतार्थ हो रहे हैं बेरोज़गार,
सच मानो! 
इस कामधेनु से 
मुहैया होती हैं बिना मांगे 
चिकनी-चुपड़ी चीज़ें 
एकदम घर बैठे
कह दो नि:संकोच!
कि न किया करे जनता जयघोष
जब सीमापार से प्रेमीजन 
आते हैं उन्हें चखाने 
स्वादिष्ट आर डी एक्स
क्योंकि हम सरमायादारी कर रहे हैं
शिखर-शान्ति सम्मेलनों में 
ये काहिल-कुंजेहन कश्मीरी 
क्या समझेंगे हमारी 
निरपवाद वैश्विक वर्चस्वता?
हमने लाशों पर खेलते हुए सियासी कबड्डी 
असंख्य बार फूंकी है 
पंचशील की दुन्दुभी,
कारगिल को कई बार फिल्माने 
आयोजित किया है जाने-अनजाने
शोख शाही शेखचिल्लियों के वास्ते 
अब जान भी लो कि 
राष्ट्र हो रहा है महिमामंडित,
क्योंकि दलेर मेंहदी के 
कामोत्तेजक वहशियाने 
छिपक-छिपक धुन पर 
उड़ते महायानों में सरपट सवार
पेरिस,लन्दन, न्यूयार्क में उतर 
हमारे प्रवासी विशिष्टजन 
चुग रहे होते हैं राजहरमों  में 
माणिक-मोती सम्भोगावस्था में
ऐसे में मत करो बातें 
वाहियात टपकते बीजों से 
पनपते गुमनाम पौधों की,
जिन्हें एहसास है तो बस
भूख और प्यास की,
जो मीलों रेल पटरियों पर
व्यस्त फिरते हैं
लुढ़क-लुढ़क 
बटोरते हुए प्लास्टिक-पोलीथीन 
खाली बोतलें, ढेरों यात्रा छीजन 
जिनके बिक सकने पर 
शायद, उन्हें हो नसीब 
प्लेटफार्म की चाय-रोटी
कई दिनों बाद
सिर्फ आज
जबकि दूरदर्शन पर 
'वन्दे मातरम' गा-गाकर 
एक मुहिम छिड़ चुकी है
आगे बढ़ने की,
बातें मत करो
(आंकड़ों-उद्घोषणाओं के युग में) 
भूखों-नंगों की 
जो शरणार्थी बन 
चख रहे हैं जायकेदार नागरिक जीवन
मीलों अंधी रेल-सुरंगों में
हां, इतना कुछ होता है यहां
आओ, देखो, भालो, अमल करो
कनाट प्लेस में सरेआम
कैट-वाक् और डेटिंग करते मिलेंगे 
हजारों-हजारों आचरण-संहिताकार,
बालीवुड-हालीवुड से 
अक्षुण प्रेरणा ले
इंटरनेट पर अमृतपान कर
ये सोदाहरण बता रहे हैं
जीने की जीवंत शैलियां
जिन्हें बामशक्कत सीखा है इन्होंने 
दूरदर्शन पर प्रसारित अन्त्याक्षारियों से.
	
	