भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

गंगा-स्‍तवन–चार / वीरेन डंगवाल

Kavita Kosh से
Pradeep Jilwane (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:35, 9 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=वीरेन डंगवाल |संग्रह=स्याही ताल / वीरेन डंगवाल }} …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


मुखबा में हिचकियां लेती-सी दिखती हैं
अतिशीतल हरे जल वाली गंगा !

बादलों की ओट हो चला गोमुख का चितकबरा शिखर

जा बेटी, जा वहीं अब तेरा घर होना है
मरने तक

चमड़े का रस मिले उसको भी पी लेना
गाद-कीच-तेल-तेजाबी रंग सभी पी लेना
ढो लेना जो लाशें मिलें सड़ती हुईं
देखना वे ढोंग के महोत्‍सव
सरल मन जिन्‍हें आबाद करते हैं अपने प्‍यार से

बहती जाना शांत चित्‍त सहलाते-दुलराते
वक्ष पर आ बैठे जल-पाखियों की पांत को
00