भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

प्रयोग का अन्त कभी न होगा / त्रिलोचन

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:29, 12 जुलाई 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=त्रिलोचन |संग्रह=अरघान / त्रिलोचन }} {{KKCatKavita‎}} <poem> पु…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पुकार जो आज उगा रहा हूँ
उगा करेगी ये नित्य यों ही
सँभाल कोई इसकी करेगा
कि आप ही विलीन होगी

मनुष्य की बात मनुष्य कानों
कभी सुनेगा कि नहीं सुनेगा
उपेक्षिता है अब प्राण-पीड़ा
कराह का सागर ज्वार में है

सभी दिशाएँ दुख से भरी हैं
चलें कहाँ, प्राण डरे-डरे हैं,
न भावना है, न विकल्पना है,
न राह ही है, न उछाह ही है

परस्परालंबन क्या न होगा
ममत्व क्या शब्द बना रहेगा
निरर्थ चिंतातुर स्वप्नदर्शी
अतृप्त ही प्राण तजा करेंगे ?

प्रलोभनों से मन मुक्त होगा
कभी कि जो नाटक आज का है
वही चलेगा कल भी यहाँ वहाँ
प्रयोग का अंत कभी न होगा