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कश्मीर-एक / राजेश कुमार व्यास

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उदास है
बर्फ से ढके पहाड़,
हरे होकर भी
सूखे हैं पत्ते।
खिलकर भ्ज्ञी
मुरझाए-से लगते हैं फूल।
सड़कों पर
छाया है सन्नाटा
सन्नाटे के बीच
सुनायी देती है
कभी-कभी
भारी बूटों की खट-खट
तो कभी
गोली के धमाके।
खामोशी में छुपी है
मौन चीखें, चीत्कारें।
सांझ होते ही
अब
सो जाता है शहर।
खाली शिकारे और हाउस बोट
ठहरे पानी में
मानो ठहर-से गये है।
दूर,
ऊंची पहाड़ी पर
यह सब देख
बेबस शंकराचार्य भी
मूक निहारते हैं-
उदास डल, नगीन को।
भूले-भटके
गर यहां-
आते भी हैं लोग
तो
डरते हैं
सुरक्षा के बने खौफ से।
आशंकाओं से
घरों में दुबके हैं
नगर के लोग।
दिन में तो
फिर भी
होती है हलचल,
खुलते हैं बाजार
पर-सूरज छुपते ही
छा जाती है वीरानी।
बीते अतीत की
याद में
खोए-खोए से हैं
शालिमार, निशात
और-
चश्मेशाही बाग।
हजरतबल
घिरी है बन्दूकों के साये से।
औचक, कहीं
गिरता भी है सूखा पत्ता
तो-
काँप जाती है
रूह तक
कुछ अनिष्ट होने के भय से।
चारों ओर
बंदूकों से घिरे लोग
हरियाली के शहर में
हरी वर्दी, हरे वाहन।
जन्नत कहा जाने वाला
यह ‘नगर’
बचा है अभी भी।
नहीं रही है, तो
बस-
इसकी वह पहले वाली ‘श्री’।