भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुल भर मैं / चंद्र रेखा ढडवाल

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:02, 16 जुलाई 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं मिली
तो भीतर का मरुस्थल
चेहरे पर पसर गया
भीगी ऋतुओं में सराबोर
मैं जिस पर बरसी
निशेष हो जाने तक


उग आई हरियाली
उसके और मेरे इर्द-गिर्द
पर रही बस
बिछती जाती हरी दूब ही
नहीं पहुँची मेरे कन्धों तक
कि सहलाती मुझे
नहीं तनी माथे तक
कि छा लेती मुझे


वर्त्तमान सहेजे रखती तब भी
पकड़ में रखती भविष्य भी
पर बीत कर भी
कब बीतता है बीता हुआ
सामने आ खड़ा हुआ
हरियाई घास को रौंदते
सीधा उसे तकते हुए
थमाते हुए एक सिलसिला
जिससे पूर्णतया कटी हुई
कर्मयोगी कृष्ण की राधा-सी
दो छोरों की खाई पाटती
एक पुल भर मैं.