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मां-१ / ओम पुरोहित ‘कागद’

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घर में भी
अलग घर
बसाए रखती है
मेरी मां !

दमें से
उचटी
नींद से उठ कर
देर रात तक
समेटती रहती है
अपनी तार-तार हो चुकी
सुहाग चुनरी !

बदलती रहती है कागज़
हरी जंग लगे
सुहाग कड्लों
रखडी़-बोरले-ठुस्सी की
पुडिया के
लगभग हर रात !

अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"