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सूरज-४ / ओम पुरोहित ‘कागद’

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रेत पर
पूरे दिन
तपता है
कत्तई प्यासा
बेचारा सूरज !

प्यासा ही चला गया
पूर्व से पश्चिम !

धरती के अंतस्थ
पानी तो था
परन्तु पूछने की
हिम्मत नहीं थी
जानता था सूरज !

अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"