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सूरज-८ / ओम पुरोहित ‘कागद’
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आज था व्रत
सूरज रोटे का !
सूरज ने झांका
घरों में
कोई तो सुहागिन
निहारेगी मुझे
रोटी के सुराख से
परन्तु
न टूटा संन्नाटा
न सुहागिने थीं
न था घर में आटा !
भरे कंठ
सांझ ढ़ले
स्वयंमेव छिप गया सूरज !
अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"