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धरती-५ / ओम पुरोहित ‘कागद’

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धरती
कब करती श्रृंगार
बारम्बार
पड़ती रही
अकल की मार
अब
सोई है
अंतहीन
मौन धार
मन मार !

अनुवाद-अंकिता पुरोहित "कागदांश"